બુધવાર, 30 નવેમ્બર, 2022

નદીઓમાં શ્રેષ્ઠ નર્મદાજી કેમ? नर्मदाजी नदियों में सर्वश्रेष्ठ क्यों हैं?

|| ૐ નમઃ શિવાય ||
। ત્વદીય પાદપંકજમ નમામિ દેવી નર્મદે ।


નદીઓમાં શ્રેષ્ઠ નર્મદાજી કેમ ?
નર્મદાજીમાંથી મળતાં શિવલિંગ દેશના
દરેક શિવાલયોમાં સ્થાપિત કરેલા છે.


નર્મદાજીનો દરેક કંક૨ શંક૨ જ કહેવાય છે. જેથી તેની પ્રાણ પ્રતિષ્ઠાની જરૂર રહેતી નથી.


માત્ર નર્મદાજી પર જ નર્મદા પુરાણની રચના થયેલી છે અન્ય નદીઓની નહિ.


શાસ્ત્રક્તિ અનુસાર વર્ષમાં એકવાર ગંગા સહિત બધી નદીઓ નર્મદાજીને મળવા આવે છે.


નર્મદા સ્નાનથી સમગ્ર ક્રૂર ગ્રહોથી શાંતિ પ્રાપ્ત થાય છે.
નર્મદાજીનો ઉદ્ભવ શિવ-પાર્વતીના હાસ્ય-૫રીહાસ્યના પ્રસ્વેદ બિંદુઓ દ્વારા થયું હતું. જેથી નર્મદાજીએ શિવની જ જીવંત ક્રિયા શક્તિ છે.


શાસ્ત્રોમાં માત્ર નર્મદાજીની પરિક્રમાનું જ એક વિધાન છે.


નર્મદાજીના ઉત્તરતટ પર વસનારા લોકો શિવલોકમાં જાય છે અને  દક્ષિણતટ પર વસનારા લોકો પિતૃલોકમાં જાય છે.


પ્રલયકાળના સમયે બધી નદીઓ વિલિન થઈ જાય છે ત્યારે માત્ર એક નર્મદા નદી જ સ્થિર રહે છે.


|| ૐ नमः शिवाय ||

। त्वदिय पादपंकजं नमामि देवी नर्मदे।

नर्मदाजी नदियों में सर्वश्रेष्ठ क्यों हैं?

देश के नर्मदाजी का शिवलिंगहर शिवालय में स्थापित हैं।

नर्मदाजी की एक-एक कनक2 को शंख2 कहते हैं। तो उसकी प्राण प्रतिष्ठा की कोई आवश्यकता नहीं है।

नर्मदा पुराण की रचना नर्मदाजी पर ही हुई है अन्य नदियों पर नहीं।

शास्त्रानुसार वर्ष में एक बार गंगा सहित समस्त नदियाँ नर्मदाजी से मिलने आती हैं।

नर्मदा स्नान से समस्त क्रूर ग्रहों की शांति होती है।

नर्मदाजी की उत्पत्ति शिव-पार्वती की हँसी के प्रवेद बिन्दु से हुई है। तो नर्मदाजी शिव की जीवंत क्रिया शक्ति हैं।

शास्त्रों में नर्मदाजी की परिक्रमा का एक ही कथन है।

नर्मदाजी के उत्तरी तट पर रहने वाले शिवलोक को जाते हैं और दक्षिण तट पर रहने वाले पितृलोक को।

जलप्रलय के समय सभी नदियाँ जलमग्न हो जाती हैं, केवल एक नदी नर्मदा ही स्थिर रहती है।

શનિવાર, 24 સપ્ટેમ્બર, 2022

ગુજરાતી ભાષામાં 'ણ' અક્ષરના શબ્દો:

એક નવું સંશોધન 

ગુજરાતી ભાષામાં 'ણ' અક્ષરના શબ્દો કેમ ભુલાવી દેવાયા?

  સામાન્ય રીતે બારાક્ષરી ભણતી વખતે તમે સાંભળ્યું હશે કે ગુજરાતી ભાષામાં 'ણ' અક્ષરથી શરુ થતો કોઈ શબ્દ નથી. મારા સંશોધનમાં એ ધ્યાનમાં આવ્યું છે કે ભગવદગોમંડલ કોશમાં 'ણ' થી શરુ થતા વીસ જેટલા શબ્દ આપેલા છે. એમાંથી એક બે- ને બાદ કરતાં બધા જ શબ્દો આજે પણ ઉપયોગમાં લઈ શકાય એવા છે. 

મધ્યકાલીન સાહિત્યમાં 'ણ' નો ભરપૂર ઉપયોગ થયો છે. એના વગર મધ્યકાલીન સાહિત્ય અધૂરું છે.'ણંદિ' શબ્દના તો ભગવદગોમંડલમાં અગિયાર જેટલા અર્થ આપેલ છે. એ પરથી સ્પષ્ટ થાય કે આ બધા જ શબ્દો ખૂબ મોટા પ્રમાણમાં પ્રયોજાતા હશે. તો હવે પ્રશ્ન એ થાય કે અર્વાચીનકાળમાં 'ણ' ના શબ્દોને શા માટે ભૂલાવી દેવાયા? આટલા શબ્દ ઉપલબ્ધ હતા તો નાના બાળકોની દેશીહિસાબની ચોપડી કે બારાખડીની ચોપડીમાં 'ણ' નો કોઈ શબ્દ કેમ ન ભણાવાયો?. નીચે આપેલા 'ણ' થી શરુ થતા શબ્દોમાંથી કોઈ પણ શબ્દ ભણાવી શકાય. 

મારું માનવું છે કે ક કમળનો ક...ન નદીનો ન... તો ણ ણગનો ણ....'ણગ' એટલે પર્વત એમ 'ણ' ને ભણાવવો જોઈએ. 

ણ: એક અક્ષર 
ણંગર: લંગર; હળ 
ણંગૂલ: પૂછડું 
ણંદ: સમુદ્ર 
ણંદણ: પુત્ર; વૃદ્ધિ; સમૃદ્ધિ 
ણંદણવણ: મેરૂ પર્વત ઉપરનું એક વન
ણંદા: પડવો, છઠ અને અગિયારસ એ ત્રણ તિથિના નામ; એક રાણીનું નામ 
ણંદાવ્રત: ચાર ઇંન્દ્રિય વાળો એક જાતનો જીવ ; નવ ખૂણા વાળો સાથિયો 
ણંદિ: આનંદ; પ્રમોદ; ઇચ્છા; અભિલાષા; ચાહના; ઇચ્છિત અર્થની પ્રાપ્તિ; એ નામનો એક દ્વીપ અને સમુદ્ર; એક ઝાડનું નામ; સમૃદ્ધિ 
ણંદીરુક્ખ: પીપળો 
ણઈ: નદી
ણઈવઈ: સમુદ્ર 
ણઉલ: નકુલ; પાંડવોનો સૌથી નાનો ભાઈ નકુલ 
ણકાર: ણ અક્ષર; ણ એવો ઉચ્ચાર 
ણકારાંત:  છેડે ણકારવાળું 
ણક્ક: નાક ; એક જાતનો મચ્છ 
ણગ: પર્વત 
ણગણ: બે માત્રાનો એક માત્રિક ગણ 
ણગર: શહેર 
ણગરાય: પર્વતોનો રાજા; મેરુ પર્વત 

ગુજરાતી સાહિત્ય
ગુજરાતી ભાષા

ગુરુવાર, 28 જુલાઈ, 2022

मां नर्मदा की कथा।

मां नर्मदा। 

कहते हैं नर्मदा नें अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया। लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही आघात किया जाए। नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा नें अपना मुंह मोड़ लिया और उल्टी दिशा में चल पड़ी। सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत दिशा में ही बहती दिखाई देती है।

कथा 1:- नर्मदा और शोण भद्र की शादी होनें वाली थी। विवाह मंडप में बैठने से ठीक एन वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोणभद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला (यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है। प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी और मंडप छोड़कर उल्टी दिशा में चली गई। शोण भद्र को अपनी गलती का ऐहसास हुआ तो वह भी नर्मदा के पीछे भागा यह गुहार लगाते हुए' लौट आओ नर्मदा'...।लेकिन नर्मदा को नहीं लौटना था सो वह नहीं लौटी।

अब आप कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि सचमुच नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की दो प्रमुख नदियों गंगा और गोदावरी से विपरीत दिशा में बहती है यानी पूर्व से पश्चिम की ओर। कहते हैं आज भी नर्मदा एक बिंदू विशेष से शोण भद्र से अलग होती दिखाई पड़ती है। कथा की फलश्रुति यह भी है कि नर्मदा को इसीलिए चिरकुंवारी नदी कहा गया है और ग्रहों के किसी विशेष मेल पर स्वयं गंगा नदी भी यहां स्नान करने आती हैं। इस नदी को गंगा से भी पवित्र माना गया है।

मत्स्यपुराण में नर्मदा की महिमा इस तरह वर्णित है, ‘कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र है और कुरुक्षेत्र में सरस्वती। परन्तु गांव हो चाहे वन, नर्मदा सर्वत्र पवित्र है। यमुना का जल एक सप्ताह में, सरस्वती का तीन दिन में, गंगाजल उसी दिन और नर्मदा का जल उसी क्षण पवित्र कर देता है।’ एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ में सप्त सरिताओं का गुणगान इस तरह है।

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेSस्मिन सन्निधिं कुरु।।

कथा 2 :-  इस कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। नद यानी नदी का पुरुष रूप। (ब्रह्मपुत्र भी नदी नहीं 'नद' ही कहा जाता है।) बहरहाल यह कथा बताती है कि राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल की पुत्री थी। राजा मेखल नें अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ।

नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहनें लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसनें अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला को सुझी ठिठोली। उसनें राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की ‍नियत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलनें।

वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई।

अब इस कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के पूर्वी भाग में आज भी प्रचलित है।

कथा 3 :- कई हजारों वर्ष पहले की बात है। नर्मदा जी नदी बनकर जन्मीं। सोनभद्र नद बनकर जन्मा। दोनों के घर पास थे। दोनों अमरकंट की पहाड़ियों में घुटनों के बल चलते। चिढ़ते-चिढ़ाते। हंसते-रुठते। दोनों का बचपन खत्म हुआ। दोनों किशोर हुए। लगाव और बढ़ने लगा। गुफाओं, पहाड़‍ियों में ऋषि-मुनि व संतों नें डेरे डाले। चारों और यज्ञ-पूजन होने लगा। पूरे पर्वत में हवन की पवित्र समिधाओं से वातावरण सुगंधित होने लगा। इसी पावन माहौल में दोनों जवान हुए। उन दोनों नें कसमें खाई। जीवन भर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने की। एक-दूसरे को धोखा नहीं देने की।

एक दिन अचानक रास्ते में सोनभद्र नें सामने नर्मदा की सखी जुहिला नदी आ धमकी। सोलह श्रृंगार किए हुए, वन का सौन्दर्य लिए वह भी नवयुवती थी। उसनें अपनी अदाओं से सोनभद्र को भी मोह लिया। सोनभद्र अपनी बाल सखी नर्मदा को भूल गया। जुहिला को भी अपनी सखी के प्यार पर डोरे डालते लाज ना आई। नर्मदा नें बहुत कोशिश की सोनभद्र को समझाने की। लेकिन सोनभद्र तो जैसे जुहिला के लिए बावरा हो गया था।

नर्मदा नें किसी ऐसे ही असहनीय क्षण में निर्णय लिया कि ऐसे धोखेबाज के साथ से अच्छा है इसे छोड़कर चल देना। कहते हैं तभी से नर्मदा नें अपनी दिशा बदल ली। सोनभद्र और जुहिला नें नर्मदा को जाते देखा। सोनभद्र को दुख हुआ। बचपन की सखी उसे छोड़कर जा रही थी। उसनें पुकारा- 'न...र...म...दा...रूक जाओ, लौट आओ नर्मदा।

लेकिन नर्मदा जी नें हमेंशा कुंवारी रहने का प्रण कर लिया। युवावस्था में ही सन्यासिनी बन गई। रास्ते में घनघोर पहाड़ियां आईं। हरे-भरे जंगल आए। पर वह रास्ता बनाती चली गईं। कल-कल छल-छल का शोर करती बढ़ती गईं। मंडला के आदिमजनों के इलाके में पहुंचीं। कहते हैं आज भी नर्मदा की परिक्रमा में कहीं-कहीं नर्मदा का करूण विलाप सुनाई पड़ता है।

नर्मदा नें बंगाल सागर की यात्रा छोड़ी और अरब सागर की ओर दौड़ीं। भौगोलिक तथ्य देखिए कि हमारे देश की सभी बड़ी नदियां बंगाल सागर में मिलती हैं लेकिन गुस्से के कारण नर्मदा अरब सागर में समा गई।

नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहनें को वह नदी रूप में हैं लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते हैं। पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है और वे कह उठते हैं ।
नमामि देवी नर्मदे।🙏🙏

શનિવાર, 2 જુલાઈ, 2022

मां नर्मदा परिक्रमा मार्ग।

पैदल परिक्रमा पथ के गाँव!

ओंकारेश्वर ६ किमी शिवकोठी, ६ किमी मोरटक्का, (खेड़ीघाट) दो रास्ते १.कटारआश्रम २. पेट्रोल पंप से माफी होते कटार आश्रम, ४ किमी टोंकसर (अन्न क्षेत्र) २ किमी पीतनगर, ४ किमी काँकरिया ६ किमी रावेरखेड़ी (बाजीराव समाधि) ४ किमी बकावाँ अन्न क्षेत्र, ३ किमी मरदाना, २ किमी नौगावाँ, ५ किमी तेली भट्याण (सियाराम बाबा), २ किमी रामकृष्ण हरि सेवा आश्रम अन्न क्षेत्र, ३ किमी ससावट, ३ किमी अमलाथ, ५ किमी लेपा, ६ माँकड़खेड़ा, ६ किमी कठोरा, ४ किमी बड़गाँव, २ किमी शालीवाहन, १ किमी नावड़ाटोड़ी अन्न क्षेत्र, ४ किमी ढालखेड़ा, ५ किमी बलगाँव, ५ खलघाट, १ किमी खलटाँका अन्न क्षेत्र, ५ किमी चिचली अन्न क्षेत्र, ५ किमी भोइन्दा, ३ किमी आभाली, ३ किमी केरवा, ३ किमी दवाणा, ५ लखनगाँव अन्न क्षेत्र, १५ चकेरी, ४ किमी अंजड़, ६ किमी बोरलाय १० किमी बड़वानी (जिला) ९ किमी बावनगजा (जैन तीर्थ) अन्न क्षेत्र, ७ किमी अंदराड़ा अन्न क्षेत्र, ९ किमी पाटी अन्न क्षेत्र, १९ किमी बोखराटा अन्न क्षेत्र, १० किमी अम्बापाड़ा (सदाव्रत), ७किमी बायगोर से पगडंडी रोड़ ४ किमी रानीपुरा, ४ किमी शिरडी, ३ किमी पिपरानी, २ किमी गौमुख (गरमपानी का कुंड) ३ किमी दरा, ४ किमी काकड़दा अन्न क्षेत्र, ६ किमी देवबारापाड़ा, ५ मांडवी, ३ किमी मांडवी बुजुर्ग, १० किमी धडगांव (राजू भाई टेलर व्यवस्था) ११ किमी मोजरा, ५ किमी खुटामोड़ी, ७ किमी काठी (गौतम पाडवी व्यवस्था) ७ किमी मुलगी, ५ किमी बिजरी गव्हाण अन्न क्षेत्र (छगन जी तड़वी,) जंगलमार्ग हेंडपंप के पास से ८ किमी पीपलखूटा, ४ किमी मोकास अन्न क्षेत्र, ८ किमी वड़फली अन्न क्षेत्र, ७ किमी कणजी, १० किमी माथासर अन्न क्षेत्र, १० किमी झरवाणी (गजानन आश्रम सेगांव अन्न क्षेत्र), १२ किमी गोरा (पुराना शूलपाणेश्वर मंदिर हरि धाम आश्रम) १३ किमी रामानन्द आश्रम मांगरोल, ५ किमी सेहराव, ३ किमी ओठलिया, ६ किमी रूड चौकड़ी, ( ३ किमी भीतर पोयचा नीलकंठ धाम स्वामिनारायण) १ किमी रूड गांव जलाराम आश्रम व्यवस्था, ८ शुकदेव व्यास पीठ, ५ किमी ओरी, २ किमी कोटेश्वर अन्न क्षेत्र, ४ किमी सिसोदरा, ४ किमी कार्तिक आश्रम कांदरोज, ३ किमी राजपरा, ३ किमी मिनवारा, ३ किमी वराछा, २ किमी असा (दगड़ू बाबा आश्रम), ३ किमी पाणेथा, ४ किमी वेलुगाम, २ किमी माताजी आश्रम अन्न क्षेत्र, ४ किमी गुप्त गोदावरी, २ किमी शुक्रेश्वर महादेव, ३ किमी मणिनागेश्वर, ३ किमी भालोद, ३ किमी प्राकड़, ७ किमी आविधा, ५ किमी लाडवा मंदिर अन्न क्षेत्र, ३ जगदीश मढ़ी, ८ किमी उचेड़िया, ५ किमी गुवाली, ३ किमी मांडवा, ३ किमी रोकड़िया हनुमान, १० किमी रामकुंड अंकलेश्वर, १० किमी बलबलाकुंड, ११ किमी हाँसोट सूर्य कुंड, १० किमी हनुमान टेकरी अन्न क्षेत्र, वमलेश्वर नाव द्वारा समुद्र पार (खुशाल भाई पटेल सरपंच) यहाँ दक्षिण तट समाप्त!

समुद्र से अमरकंटक की ओर उत्तर तट

मीठी तलाई ३ किमी अम्बेठा, १० किमी सुवा आश्रम, ५ किमी कोलियाद, ७ भेसली, ८ किमी नवेठा (अवधूत आश्रम), ४ किमी भाड़भूतेश्वर (केवट आश्रम), ३ टीवी ४ दसाण, ३ बरवाड़ा ४ कुकरवाड़ा ४ भरुच (नीलकंठ आश्रम) झाड़ेश्वर, १३ मांगरोल (शशि बेन आश्रम) २ दत्त मढ़ी, ४ अंगारेश्वर, २ धर्म शीला, ३ झणोर, ३ नांद कबीर आश्रम, ४ सोमज ढेलवाड़ा, ३ ओज, ६ मोटी कोरल ५ नारेश्वर (रंगअवधूत धाम) २ सायर, ३ कहोणा, १५ वालेश्वर, २ हरिओम आश्रम, २ सुराश्या माल, ५ शिनोर, ७ अनुसुइया आश्रम, ३ मोलेठा, ५ गुप्तेश्वर आश्रम, ४ चांदोद, ४ कुबेर भंडारी करनाळी, १४ तिलकवाड़ा, १२ गरूड़ेश्वर, ५ गभाणा ७ झरिया, (केवडिया सरदार सरोवर स्टेच्यू ऑफ यूनिटी) ९ छोटी अम्बाजी, १२ बोरीयाद, ४ वगाच, १० रेवड़िया आश्रम, १४ कवाँट, (म. प्र.) १४ छकतला, से ३३ किमी बेहड़ा हनुमान मंदिर (बीच में आने वाले गांव क्रमशः अजपाई, आमला, अक्कलतरा, कोसारिया, अट्ठा, पीपरी, बेहड़ा) ११ कुलवट, ४ कवड़ा हनुमान आश्रम, १३ डही, ४ अतरसुमा, ६ बड़वान्या, ४ पड़ियाल, ६ सुसारी से कुक्षी बायपास होते ११ अम्बाड़ा, ४ धुलसर अन्नक्षेत्र, ३ लोहारी ७ सिंघाना शिव मंदिर, ६ बोरूद, ४ देदला ६ मनावर बंकनाथ मंदिर, टोकी, भानपुरा, छनोरा, उमरबन (कुल दूरी २३)व्यवस्था, ९ सुराणी, १० नीलकंठेश्वर (माण्डव) ५ रेवा कंड ७ किमी बगवान्या (नर्मदा आश्रम) १२ धामनोद, ९ खराड़ी, ५ महेश्वर घाट, (मण्डलेश्वर) १२ धरगाँव २२ बंजारी बड़दिया अन्नक्षेत्र, १० बड़वाह, ८ सुलगाँव, जंगलमार्ग ९ कुंडी, ३ वड़ेल, ३ मेहंदी खेड़ा, ६ तराण्या, ९ पीपरी वाल्मीकि आश्रम, ४ रतनपुर, ४ बावड़ीखेड़ा, ७ जयंतीमाता झरना, जंगलमार्ग में २३ पामाखेड़ी, १२ धर्मेश्वर आश्रम, ४ बाई जगवाड़ा,५ नामनपुर ५ टिपरास, ४ मिरजापुर इमलीघाट, २ तमखाणा २ सिराल्या, ९ डावठा (जगदीश भाई अन्नक्षेत्र) ९ नेमावर दादूदयाल आश्रम, कुड़गांव, तुरनाल, तन्यागांव, तीतरी, करोड़, बीजलगांव नर्मदा मंदिर तक कुल दूरी १६ किमी, पीपलनेरिया, छीपानेर, रानीपुरा, चावस्या खेड़ी, सातदेव तक कुल दूरी १२ किमी, सीलकंठ, नीलकंठ, चनेठी, मंजली (व्यवस्था), खलगांव, बावरी, जोजवा, मट्ठागांव, ठप्पर, नेहलाई, रेवगांव तक कुल दूरी २९ किमी, ४ मरदानपुरा, ४ आवलीघाट, ९ तालपुरा, १० होलीपुरा, ३ सततुमड़ी, २ नीनोर, १२ पीली कटार, ५ बुधनी (आश्रम) ११ बान्दरा भान, १ जहाजपुर, ५ शाहगंज चीचली (आश्रम),५ बनेठा, ५ सुपाड़िया, २ हथनोर डोबी, ३ सरदार नगर, ३ जैत २ नारायण पुरा, ३ नांदनेर, ३ सुमनखेड़ा आश्रम, ६ भारकच्छ, २ गडरवास, ७ सनखेड़ा, १५ बगलखेड़ा (वानखेड़ी आश्रम) ४ सत्रावन ५ डूमर १० मांगरोल, ८ बरहा (सीताराम आश्रम) २ सुभाली, ४ केतुधान (शनि आश्रम) ३ मोहलखेड़ा, ९ बोरास (अन्नक्षेत्र) १३ अंघोरा स्वामी समर्थ आश्रम) ४ पतई़घाट, ३ शुक्लेश्वर, २ रिछावर, ७ टिमरावन, ६ हीरापुर, ६ करोंदी, ५ कतई, २ बेलथारी, ३ सीमरिया, २ झीरवी, ४ छतरपुर, २ खेड़ी खुर्द, १२ बरमान घाट आश्रम, २ मीढली, ५ हीरणपुर, ५ गुरसी, ५ रामपुरा आश्रम, ४ केरपाणी, ५ पथोरा, २ बारूखेडा, ४ मुरगाखेड़ा, ३ डोंगरगांव, १२ धुमखेड़ा आश्रम, ३ जोगीपुरा, ३ पावला, २ बरखेड़ी, ४ वरवठी, ५ खुणा, १४ सर्रा आश्रम, २ कुसली, ८ नीमखेड़ा, २ झांसीघाट, ८ शाहपरा, ४ शीतलपुर, २ जल्हेरीघाट, ४ सिद्धघाट, ४ पीपरिया रामघाट गोवत्स आश्रम, ८ भेड़ाघाट, ४ गोपालपुरा, २ लम्हेटा सरस्वती घाट, १२ ग्वारीघाट, २ कालीआश्रम, १० बरेला (आरबीएस पेट्रोल पंप पर व्यवस्था) ८ अमरकंटक फाटा ७ धनपुरी आश्रम, १० मनेरी माता आश्रम, २ गोरामबाबा चौसठ योगिनी मंदिर, १२ बंजारी माता, ३ हाथीतारा, २ गुदलई अन्नक्षेत्र, ४ भीखमपुर, ३ बिझौली, ३ विसौरा, ३ मानिकपुर आश्रम, ५ बिछिया, ३ कटंगी, ३ बजरंगकुटी, भदवाड़ा घाट शहपुरा (व्यवस्था), १ करोंदी, ६ शहपरा, ७ उत्कृष्ट काशी धर्मशाला वरगांव, ४ अमठेड़ा, ३ बरझड़, ४ अमेठा, ३ डोंगरिया (चौबे धर्मशाला) ७ आनाखेड़ा आश्रम, ५ विक्रमपुर, ९ गणेश पुरी(अजय साल) ५ शाहपुरा ९ जोगीटिकरिया, १२ रामघाट आश्रम, ४ रूसी माल, ५ दूधीघाट, ९ टेड़ी संगम चंदन घाट, ३ लालपुर, ३ बसंत पुर, ४ कंचनपुर आश्रम, २ शिवाला घाट, ५ ठाड़ पत्थर, ४ देवरी, ४ दमहेड़ी, ५ सलबारी, हेमसिंह मरावी सेवादार, ३ बिलासपुर, ५ पढरिया, ५ मोहदी (हरिशंकर पँवार घर सेवा), ७ हर्रईटोला, ५ खेड़ी सेमल, ५ दमगड़, ५ कपिलधारा, ५ रामकृष्ण कुटीर, ३ अमरकंटक (मृत्युंजय आश्रम) उत्तर तट समाप्त!

अमरकंटक (दक्षिण तट प्रारंभ) 
२ किमी माई की बगिया (उद्गम स्थल) १ किमी सोनमूढ़ा १ रेवा कुंड, ५ कबीर चबूतरा ८ किमी जगतपुर, ८ करंजिया आश्रम, ४ राम नगर, ३ अमलडीहा, ५ रूसा, ८ गोरखपुर, ९ मोहतरा आश्रम, ६ गाढ़ा सराई, ३ सागरटोला, ५ बोंदरगांव, २ सुनिया महर ५ खर गहना, ४ कुंडा हनुमान मंदिर, ९ किमी डिंडोरी रामआश्रम, २८ किमी राई, ७ हर्रा, १३ चावी व्यवस्था, ४ डेडिया, १ खाले ठिठोरी, ८ मोहगांव, १५ देवगांव बूढ़ी नदी संगम, ५ बिलगांव हनुमान मंदिर, ११ रामनगर, ९ मधुपुरी, २ घुघरा (नहर मार्ग से सूर्य कुंड), २ महाराजपुर, सड़कमार्ग ४ किमी अग्रवाल क्रशर व्यवस्था, २० बख्शी, ३ मसूर थावरी, २ भिलाई, ५ मोहगांव, ८ पहाड़ी गांव, ७ धनसोर, ५ बालपुर, ४ मेहताराय, ३ दरोड़कला, ३ कहानी, ३ मलखेड़ा, ४ सहसना, ५ सिहोरा, २ बुधवानी, ७ लखनादौन (सौरभ तिवारी व्यवस्था) १३ हनुमान मंदिर पिपरिया, ६ परासिया बंजारी माता, ५ मोराबीबी, (फारेस्ट डीपो) ३ मूंगवानी, ५ देवनगर, ४ बकोरी, ७ बचई, १६ नरसिंहगढ़, १६ करेली, ४ गढ़ेसरा, २ बनेसू, ८ करपगांव, १० बरहासू, १६ गडरवाड़ा, ४ कामली शनि मंदिर, २१ मालनवाड़ा, १० बनखेड़ी, २ वाचावानी, १७ पिपरिया, ४ हनुमान मंदिर ६ शोभापुर, १० करनपुर आश्रम, ४ सोहागपुर, १६ गुराड़ी, ११ बाबई, २२ होशंगाबाद नागेश्वर मंदिर व्यवस्था, ५ डोंगरवाड़ा, 
५ रंडाल, ९ पोकसर, ३ खरखेड़ी घाट, १२ आवलीघाट, १७ बावरी, १२ भिलाड़िया घाट, ५ हमीरपुरा, १० गोरागांव, ५ तजपुरा, ३ हनुमान मंदिर, ३ करताना, ६ गोंदागांव, ४ सनखेड़ी, ९ हरदा, ९ मक्खनभोग, ४ मसनगांव, ३ काकरिया, ५ मादला, ३ मुहालकला, ७ पीपरवड़, ४ पोखरनी, ९ दगड़खेड़ी, ९ धारखेड़ी, १६ छनेरा, ६ चारूखेड़ा (२ किमी भीतर मनरंगगिरी समाधि), ५ साडला, ५ माडला, ३ करोली, ५ सोम गांव, ५ सिंगाजी, २ किमी भीतर सिंगाजी समाधि, ६ बीड़, ५ मूंदी, ६ भमोरी, ६ जलवा बुजुर्ग, ५ देवला खुटला, ९ अटूट खास, १० हाथियाबाबा आश्रम, नहर मार्ग से १७ किमी ओंकारेश्वर 
परिक्रमा पूर्ण । 
नर्मदे हर । हर हर महादेव।
🙏🙏🙏🙏

ગુરુવાર, 7 એપ્રિલ, 2022

प्रभु श्री रामजी का वनवास मार्ग

कुछ लोग राम को काल्पनिक मानते है वो सबूत देख ले 14 वर्ष के वनवास में श्रीराम प्रमुख रूप से 17 जगह रुके, देखिए यात्रा का नक्शा
प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

 रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के नाम..

1.तमसा नदी : अयोध्या से 20 किमी दूर है तमसा नदी। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की।

2.श्रृंगवेरपुर तीर्थ : प्रयागराज से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा जाता है।

 3.कुरई गांव : सिंगरौर में गंगा पार कर श्रीराम कुरई में रुके थे।

4.प्रयाग : कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में प्रयागराज कहा जाता है। 

5.चित्रकूणट : प्रभु श्रीराम ने प्रयाग संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

6.सतना : चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। हालांकि अनुसूइया पति महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे, लेकिन सतना में 'रामवन' नामक स्थान पर भी श्रीराम रुके थे, जहां ऋषि अत्रि का एक ओर आश्रम था।

7.दंडकारण्य: चित्रकूट से निकलकर श्रीराम घने वन में पहुंच गए। असल में यहीं था उनका वनवास। इस वन को उस काल में दंडकारण्य कहा जाता था। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर दंडकाराण्य था। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के अधिकतर हिस्से शामिल हैं। दरअसल, उड़ीसा की महानदी के इस पास से गोदावरी तक दंडकारण्य का क्षेत्र फैला हुआ था। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

8.पंचवटी नासिक : दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। यह आश्रम नासिक के पंचवटी क्षे‍त्र में है जो गोदावरी नदी के किनारे बसा है। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

9.सर्वतीर्थ : नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया था जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

10.पर्णशाला: पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को 'पनशाला' या 'पनसाला' भी कहते हैं। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था। इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

11.तुंगभद्रा : सर्वतीर्थ और पर्णशाला के बाद श्रीराम-लक्ष्मण सीता की खोज में तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

12.शबरी का आश्रम : तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। 'पम्पा' तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। पौराणिक ग्रंथ 'रामायण' में हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है। केरल का प्रसिद्ध 'सबरिमलय मंदिर' तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

13.ऋष्यमूक पर्वत : मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। पास की पहाड़ी को 'मतंग पर्वत' माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था जो हनुमानजी के गुरु थे।

14.कोडीकरई : हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने वानर सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है। यहां श्रीराम की सेना ने पड़ाव डाला और श्रीराम ने अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित कर विचार विमर्ष किया। लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

15..रामेश्‍वरम : रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

16.धनुषकोडी : वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।
इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

17.'नुवारा एलिया' पर्वत श्रृंखला : वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। 'नुवारा एलिया' पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

श्रीवाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ईपू के आसपास की होगी (1/4/1 -2)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ईपू के आसपास इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। रामायण की कहानी के संदर्भ निम्नलिखित रूप में उपलब्ध हैं-

* कौटिल्य का अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईपू)

* बौ‍द्ध साहित्य में दशरथ जातक (तीसरी शताब्दी ईपू)

* कौशाम्बी में खुदाई में मिलीं टेराकोटा (पक्की मिट्‍टी) की मूर्तियां (दूसरी शताब्दी ईपू)

* नागार्जुनकोंडा (आंध्रप्रदेश) में खुदाई में मिले स्टोन पैनल (तीसरी शताब्दी)

* नचार खेड़ा (हरियाणा) में मिले टेराकोटा पैनल (चौथी शताब्दी)

* श्रीलंका के प्रसिद्ध कवि कुमार दास की काव्य रचना 'जानकी हरण' (सातवीं शताब्दी)

संदर्भ ग्रंथ :
1. वाल्मीकि रामायण
2. वैद युग एवं रामायण काल की ऐतिहासिकता l

શનિવાર, 19 માર્ચ, 2022

क्या शिवलिंग रेडिएटर हैं?

क्या शिवलिंग रेडिएटर हैं?

हाँ 100% सच!!

भारत का रेडियो एक्टिविटी मैप उठाएं, हैरान रह जाएंगे आप! भारत सरकार की परमाणु भट्टी के बिना सभी ज्योतिर्लिंग स्थलों में सर्वाधिक विकिरण पाया जाता है।

शिवलिंग और कुछ नहीं परमाणु भट्टे हैं, इसीलिए उन पर जल चढ़ाया जाता है, ताकि वे शांत रहें।

महादेव के सभी पसंदीदा भोजन जैसे बिल्वपत्र, अकामद, धतूरा, गुड़ आदि सभी परमाणु ऊर्जा सोखने वाले हैं।

क्योंकि शिवलिंग पर पानी भी रिएक्टिव होता है इसलिए ड्रेनेज ट्यूब क्रॉस नहीं होती।

भाभा अनुभट्टी की संरचना भी शिवलिंग की तरह है।

नदी के बहते जल के साथ ही शिवलिंग पर चढ़ाया गया जल औषधि का रूप लेता है।

इसीलिए हमारे पूर्वज हमसे कहा करते थे कि महादेव शिवशंकर नाराज हो गए तो अनर्थ आ जाएगा।

देखें कि हमारी परंपराओं के पीछे विज्ञान कितना गहरा है।

जिस संस्कृति से हम पैदा हुए, वही सनातन है।

विज्ञान को परंपरा का आधार पहनाया गया है ताकि यह प्रवृत्ति बने और हम भारतीय हमेशा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें।

आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में केदारनाथ से रामेश्वरम तक एक ही सीधी रेखा में बने महत्वपूर्ण शिव मंदिर हैं। आश्चर्य है कि हमारे पूर्वजों के पास ऐसी कौन सी विज्ञान और तकनीक थी जो हम आज तक समझ नहीं पाए? उत्तराखंड के केदारनाथ, तेलंगाना के कालेश्वरम, आंध्र प्रदेश के कालेश्वर, तमिलनाडु के एकम्बरेश्वर, चिदंबरम और अंत में रामेश्वरम मंदिर 79°E 41'54" रेखा की सीधी रेखा में बने हैं।

ये सभी मंदिर प्रकृति के 5 तत्वों में लैंगिक अभिव्यक्ति दिखाते हैं जिन्हें हम आम भाषा में पंचभूत कहते हैं। पंचभूत का अर्थ है पृथ्वी, जल, अग्नि, गैस और अवकाश। इन पांच सिद्धांतों के आधार पर इन पांच शिवलिंगों की स्थापना की गई है।

तिरुवनैकवाल मंदिर में पानी का प्रतिनिधित्व है,
आग का प्रतिनिधित्व तिरुवन्नामलाई में है,
काल्हस्ती में पवन दिखाई जाती है,
कांचीपुरम और अंत में पृथ्वी का प्रतिनिधित्व हुआ
चिदंबरम मंदिर में अवकाश या आकाश का प्रतिनिधित्व!

वास्तुकला-विज्ञान-वेदों का अद्भुत समागम दर्शाते हैं ये पांच मंदिर

भौगोलिक दृष्टि से भी खास हैं ये मंदिर इन पांच मंदिरों का निर्माण योग विज्ञान के अनुसार किया गया है और एक दूसरे के साथ एक विशेष भौगोलिक संरेखण में रखा गया है। इसके पीछे कोई विज्ञान होना चाहिए जो मानव शरीर को प्रभावित करे।

मंदिरों का निर्माण लगभग पांच हजार साल पहले हुआ था, जब उन स्थानों के अक्षांश को मापने के लिए उपग्रह तकनीक उपलब्ध नहीं थी। तो फिर पांच मंदिर इतने सटीक कैसे स्थापित हो गए? इसका जवाब भगवान ही जाने।

केदारनाथ और रामेश्वरम की दूरी 2383 किमी है। लेकिन ये सभी मंदिर लगभग एक समानान्तर रेखा में हैं। आखिरकार, यह आज भी एक रहस्य ही है, किस तकनीक से इन मंदिरों का निर्माण हजारों साल पहले समानांतर रेखाओं में किया गया था।

श्रीकालहस्ती मंदिर में छिपा दीपक बताता है कि यह हवा में एक तत्व है। तिरुवनिक्का मंदिर के अंदर पठार पर पानी के स्प्रिंग संकेत देते हैं कि वे पानी के अवयव हैं। अन्नामलाई पहाड़ी पर बड़े दीपक से पता चलता है कि यह एक अग्नि तत्व है। कांचीपुरम की रेती आत्म तत्व पृथ्वी तत्व और चिदंबरम की असहाय अवस्था भगवान की असहायता अर्थात आकाश तत्व की ओर संकेत करती है।

अब यह कोई आश्चर्य नहीं है कि दुनिया के पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करने वाले पांच लिंगों को सदियों पहले एक ही पंक्ति में स्थापित किया गया था।

हमें अपने पूर्वजों के ज्ञान और बुद्धिमत्ता पर गर्व होना चाहिए कि उनके पास विज्ञान और तकनीक थी जिसे आधुनिक विज्ञान भी नहीं पहचान सका।

माना जाता है कि सिर्फ ये पांच मंदिर ही नहीं बल्कि इस लाइन में कई मंदिर होंगे जो केदारनाथ से रामेश्वरम तक सीधी लाइन में आते हैं। इस पंक्ति को 'शिवशक्ति अक्षरेखा' भी कहते हैं, शायद ये सभी मंदिर 81.3119° ई में आने वाली कैलास को देखते हुए बने हैं!?

इसका जवाब सिर्फ भगवान शिव ही जानते हैं

आश्चर्यजनक कथा 'महाकाल' उज्जैन में शेष ज्योतिर्लिंग के बीच संबंध (दूरी) देखें।

उज्जैन से सोमनाथ - 777 किमी

उज्जैन से ओंकारेश्वर - 111 किमी

उज्जैन से भीमाशंकर - 666 किमी

उज्जैन से काशी विश्वनाथ - 999 किमी

उज्जैन से मल्लिकार्जुन - 999 किमी

उज्जैन से केदारनाथ - 888 किमी

उज्जैन से त्र्यंबकेश्वर - 555 किमी

उज्जैन से बैजनाथ - 999 किमी

उज्जैन से रामेश्वरम - 1999 किमी

उज्जैन से घृष्णेश्वर - 555 किमी

हिंदू धर्म में कुछ भी बिना कारण के नहीं किया जाता है।
सनातन धर्म में हजारों वर्षों से माने जाने वाले उज्जैन को पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। इसलिए उज्जैन में सूर्य और ज्योतिष की गणना के लिए लगभग 2050 वर्ष पूर्व मानव निर्मित उपकरण बनाए गए थे।

और जब एक अंग्रेज वैज्ञानिक ने 100 साल पहले पृथ्वी पर एक काल्पनिक रेखा (कर्क) बनाई तो उसका मध्य भाग उज्जैन गया। उज्जैन में आज भी वैज्ञानिक सूर्य और अंतरिक्ष की जानकारी लेने आते हैं।

મંગળવાર, 11 જાન્યુઆરી, 2022

શુકન કે અપશુકન ? વિચારો !

તમારો શુકન-અપશુકનનો ખ્યાલ બદલાઈ જશે...

સંધ્યાકાળે કચરો ઘરની બહાર ન કઢાય :
જુના કાળમાં ઈલેક્ટ્રિસિટિ ન હતી. સૂર્યાસ્ત બાદ દીવો કે ફાનસના અપૂરતા પ્રકાશમાં કામ ચલાવવાનું રહેતું. આથી બનતું એવું કે દિવસ દરમિયાન કામ કરતા-કરતા અજાણતા કોઈ અમૂલ્ય ચીજ-વસ્તુ હાથમાંથી જમીન પર પડી ગઈ હોય ને સંધ્યા ટાણે મંદ અંધકારની સ્થિતિમાં એ વસ્તુ કચરા સાથે ઘરની બહાર જતી રહે તો કોઈને એની જાણ ન થાય. આથી એ સમયના વડીલો કહેતા કે સંધ્યાકાળે કચરો કાઢવાથી લક્ષ્મી ઘરમાંથી ચાલી જાય છે. આજે તો ઘર-ઘરમાં રાત્રે પૂરતો પ્રકાશ મળી રહે છે તેથી કોઈ વસ્તુ કચરા સાથે ઘર બહાર નિકળી જાય એવો ડર રહેતો નથી. છતાં દિવસ જેવો ઉજાસ તો ઉપલબ્ધ નથી જ. માટે રાત્રે કચરો વાળી શકાય પરંતુ ચોકસાઈ તો રાખવી જ પડે.
શનિવારે માથામાં તેલ ન નખાય :
અંગ્રેજોના શાસનકાળ દરમિયાન રવિવાર રજાનો દિવસ જાહેર થયો હતો. આથી માથુ ધોવા માટે રવિવારે જ સમય મળતો. હવે રવિવારે માથુ ધોવાનું હોય તો માથામાં બહુ ચિકાશ ન હોય તો સરળતાથી માથાના વાળમાં રહેલો મેલ કાઢી શકાય. કારણ કે એ સમયે ચિકાશ કાઢવા માટે અદ્યતન સાબુ-શેમ્પૂ ઉપલબ્ધ ન હતા. માટે લોકો સમજીને શનિવારથી જ માથુ કોરું રાખતા. આ વાત ન માને તો ‘ધરમ ’નો ડર બતાવી કોઈને કાબુમાં લેવાનું સરળ હતું. આથી કહી દેવાતું કે શનિવાર હનુમાનજીનો વાર હોવાથી માત્ર હનુમાનજીને તેલ ચઢે, આપણે માથામાંતેલ નાંખવાનું નહિ. એ જ રીતે નખ કાપવા માટે, બુટ ખરીદવા માટે, દાઢી સાફ કરવા માટે, વાળ કપાવવા માટે રવિવારની રજા બહુ કામમાં આવતી. શનિવારે આ બધું ન થાય એની પાછળ કોઈ વિજ્ઞાન નથી. રવિવારની રજાના દિવસે મોટા ભાગના લોકો વાળ કપાવવાનું તેમજ દાઢી સાફ કરાવવાનું રાખતા હોવાથી એ દિવસે વાળંદ રજા તો ન જ રાખી શકે ઉલ્ટાનું એને રવિવારે ઓવરટાઈમ કરવો પડે. આથી આગલા દિવસે શનિવારે એ રજા ભોગવી લે તો રવિવારે પુરી સ્ફૂર્તિથી કામ કરી શકે એ માટે વાળંદ માટે શનિવારે રજા નક્કી થઈ હશે.
એના પગલા ખરાબ છે :
દિકરાને પરણાવીને વહુને ઘરે લાવ્યા બાદ ઘરમાં કોઈ અમંગળ ઘટના બને તો વહુના પગલાને ખરાબ ગણીને એને દોષ આપવામાં આવે છે. નવા પરણેલા દિકરાની નોકરી છુટી જાય, કોઈ ઘરમાં માંદુ પડે, કોઈનું અવસાન થાય વગેરે પૈકી કોઈ ઘટના બને તો એમાં વહુનો શું દોષ? પરંતુ આવા મનઘડંત કારણ-પરિણામના સંબંધો જોડી દેવાની માનસિક નબળાઈ મોટા ભાગના પરિવારોમાં જોવા મળે છે. એ જ રીતે દિકરીનો જન્મ થયા બાદ ઘર પર કોઈ આપત્તિ આવે તો એના પગલાને ખરાબ ગણવામાં આવે છે. રામના સીતા સાથે લગ્ન થયા બાદ રામની રાજગાદી છીનવાઈ ગઈ, તેઓને ચૌદ વર્ષનો વનવાસ થયો એટલું જ નહિ, બધું જ વ્યવસ્થિત ચાલતું હતું, રામ પુન: રાજ્યસિંહાસન આરૂઢ થયા હતા , સીતા સાથે પ્રણયમગ્ન હતા તેવામાં સીતાનો પ્રસુતિકાળ નજીક આવ્યો, રામના બે પુત્રો લવ-કુશના જન્મનો સમય થયો ત્યાં તો સીતાનો સર્વદા ત્યાગ કરવાનો કપરો નિર્ણય રામને કરવાનો થયો. ચૌદ વર્ષનો ઘોર કષ્ટદાયક સમય પુરો થયા બાદ પણ રામ સુખપૂર્વક દામ્પત્યજીવન માણી શક્યા નહિ તો શું રામ સીતાને, લવ-કુશના આગમનને દુર્ભાગ્યપૂર્ણ ગણશે ?

કોઈ બહાર જતું હોય તો ‘ક્યાં જાઓ છો’ એમ નહિ પૂછવાનું :
ઘણાં પરિવારોમાં તો આ રિવાજ એટલો બધો જડ બેસલાક હોય છે કે ભુલમાં કોઈ બાળક , ‘ક્યાં જાઓ છો?’ એવું પૂછી લે તો બહાર જનાર તથા ઘરના સભ્યો ખુબ નારાજ થઈ જાય છે. આની પાછળની સમજણ એવી છે કે કોઈના અંગત મામલામાં વધુ પડતી જિજ્ઞાસા રાખવી અસભ્ય ગણાય. બાકી શુકન –અપશુકન જેવું કંઈ હોતું નથી.
ઉલ્ટા પડેલા ચંપલ :
કોઈ કોઈ ઘરના કમ્પાઉંડમાં પ્રવેશતા જ ચંપલ કે બુટ ઉંધુ પડેલું જોવા મળે તો એને અપશુકન ગણવામાં આવે છે. વાસ્તવમાં ઘરના સભ્યો બિનજવાબદાર ગણાય કારણ કે જુએ છે બધાં જ પરંતુ કોઈ એને સીધું કરવાનું સમજતા નથી. આ ઘટનાને અપશુકન સાથે શું લેવાદેવા ? એ જ રીતે કોઈ જમીન પર પગ ઘસડીને ચાલતુ હોય કે પછી પલંગમાં બેસીને લબડતા પગ હલાવ્યા કરે તો એને કહેવાય છે કે આ રીતે કરવાથી ઘરમાંથી લક્ષ્મી ચાલી જાય છે. વાસ્તવમાં આ બધી અસભ્યતાની નિશાનીઓ છે જે વ્યક્તિને પ્રેમથી સમજાવવાથી દૂર થઈ શકે છે. પરંતુ બધાએ માની લીધું છે કે આર્થિક નુક્શાનના ડરથી જ બધા સીધા ચાલે છે આથી કોઈ પણ ખોટી આદત છોડાવવા માટે લાગલું જ ‘ લક્ષ્મી ચાલી જશે’ એમ કહેવાય છે.
બિલાડી આડી ઉતરે છે :
આવા અપશુકનમાં વિશ્વાસ રાખનારા વાહિયાત છે. બીજું શું ?માણસ બિલાડીને આડો ઉતરે ને એનો દિવસ ખરાબ જાય તો એ કોને ફરિયાદ કરશે ? 
ઘણા કહે છે: ‘આજે સવારે મેં કોનો ચહેરો જોયો હતો ? મારો આખો દિવસ ખરાબ ગયો.’અરીસામાં જ જોયું હોય ને ભાઈ તેં ! 
ચાલતા હાથે-પગે વાગે તો કહેશે ‘ કોઈ મને ગાળ દઈ રહ્યું છે.’ હેડકી આવે અથવા ખાતા-ખાતા અંતરસ આવે તો કહે, ‘મને કોઈ બહુ યાદ કરે છે.’ ભ’ઈ તારા લેણિયાતો સિવાય તને કોઈ યાદ કરે એમ નથી !

એક છીંક આવે તો ‘ ના’ અને બે છીંક આવે તો ‘હા’ :
કોઈ કામ કરવાનું શરૂ કરો, ક્યાંય બહાર જવા નિકળો ને એક છીંક આવે તો રોકાઈ જવાનું અને થોડી વાર રહીને કામ કરવાનું. બે છીંક આવે તો તમારા કાર્યને કુદરતનું સમર્થન છે એમ માનીને એ કામ દૃઢતાથી કરવાનું. મારો એક મિત્ર તો પોતાનું વાહન ડાબી બાજુ વાળતો હોય ને એક છીંક આવે તો જમણી બાજુ વાળી લે. આ છીંકને શુકન-અપશુકન સાથે કોઈ સંબંધ ખરો ?
મુહૂર્ત જોવડાવવામાં આવે છે :
કૃષ્ણ મુહૂર્ત જોઈને દુર્યોધન સાથે વિષ્ટી (સંધિ) કરવા હસ્તિનાપુર ગયા હતા. છતાં એમણે કહ્યું હતું કે ‘હું જાઉં છું માટે જ વિષ્ટિ સફળ નહિ થાય. અલબત્ત મારા સઘન પ્રયાસો હશે જ વિષ્ટિને સફળ બનાવવા માટેના !’ ગૃહપ્રવેશ, રાજ્યાભિષેક ,લગ્ન વગેરે મુહૂર્ત જોવડાવીને થાય છે. એની પાછળનું રહસ્ય પ્રકૃતિનો સાથ લેવાનો આશય છે. આપણે ત્યાં વર્ષાઋતુમાં એક પણ લગ્નનું મુહૂર્ત હોતું નથી. કારણ શું ? વરસાદમાં બધાને અગવડ પડે છે. અરે, તીર્થયાત્રીઓ ચાર માસ સુધી પોતાની તીર્થયાત્રા અટકાવી દે છે.
વસંતપંચમી તેમજ અખાત્રીજનું વણજોયું મુહૂર્ત ગણાય છે કારણ કે એ સમયે પ્રકૃતિ સદાય સોળ કળાએ ખીલેલી હોય છે.
કોઈ પણ વ્યક્તિ ધન અને કીર્તિ કમાય એટલે એ માનસિક રીતે એટલો બધો નબળો થઈ જાય છે કે શુકન-અપશુકનના રવાડે ચઢી જ જાય છે. રાજકારણીઓ, રમતવીરો, ફિલ્મસર્જકો , હીરો-હીરોઈનો બધાને આ વાત એક સરખી લાગુ પડે છે. અમુક જગ્યાની મુલાકાત લેનાર મુખ્યમંત્રી પોતાનું પદ ગુમાવે છે, ફિલ્મના નામના સ્પેલિંગમાં અમુક અક્ષર બેવડાવવાથી ફિલ્મ સફળ થશે, ચોક્કો કે છક્કો વાગે એટલે તાવીજ ચુમવું, સદી વાગે એટલે જમીન ચુમવી, પોતાનું બેટ ન બદલવું, નંગની વીંટીઓ, ગળામાં પેંડંટ વગેરે મનોરોગની નિશાનીઓ છે. એમાંથી કોણ બચ્યું છે ? જ્યોતિર્વૈદ્યૌ નિરંતરૌ. એટલે કે જ્યોતિષી અને વૈદ્ય સદાય કમાવાના જ ! એમના ધંધામાં ક્યારેય મંદિ આવવાની જ નહિ ! કારણ કે હંમેશા શારીરિક અને માનસિક રીતે નબળા માણસો સમાજમાં હોવાના જ !
આત્મવિશ્વાસથી ભરપૂર માણસ શુકન-અપશુકન પર આધારિત રહેતો નથી. પોતાના બાહુબળના આધારે એ અશક્યને શક્ય કરી શકે છે.
“‘ ન કરતો ભાગ્યની પરવા હું ખુદ એને ઘડી લઉં છું, ગ્રહો વાંકા પડે તો એને સીધા ગોઠવી દઉં છું.” આત્મવિશ્વાસની સાથે-સાથે ઈશવિશ્વાસ આવશ્યક છે.